Tuesday 19 August 2014

What confict between Israel and Palestine - a general View (Hindi)


हम अक्सर अरब इज़राईल और इज़राइल-फिलिस्तीन विवाद के बारे मे सुनते रहते हैं। इस विवाद के मूल मे जाए तो इस विवाद की शुरुवात 19वी शताब्दी के अंत मे प्रखर होते अरब राष्ट्रवाद और यहूदी राष्ट्रवाद मे है।

यहूदी धर्म इस्लाम और ईसाई धर्म से पूर्व का धर्म है । इनकी धार्मिक पुस्तक को ओल्ड टेस्टामेण्ट कहते हैं,जिसे बाइबिल का प्रथम भाग  या पूर्वार्ध भी कहते हैं।" पैगंबर अब्राहम (अबराहम या इब्राहिम)जो ईसा से 2000 वर्ष पूर्व हुए थे उन्हे इस धर्म का प्रवर्तक कहा जाता है  । पैगंबर अलै. अब्राहम के पोते का नाम हजरत अलै. याकूब था। हजरत अलै. याकूब का एक नाम इजरायल भी था,जिसके नाम पर आज का यहूदी राष्ट्र इजरायल है । हजरत अलै. याकूब के एक पुत्र का नाम जूदा या यहूदा था यहूदा के नाम पर ही इसके वंशज यहूदी कहलाए । अब्राहम को यहूदीमुसलमान और ईसाई तीनों धर्मों के लोग अपना पितामह मानते हैं। आदम से अब्राहमअब्राहम से मूसायहाँ तक ईसाई इस्लाम और यहूदी सभी धर्मो के पैगंबर एक ही है

मान्यताओं के अनुसार ईसा मसीह को अब्राहम का वंशज मान कर एक समुदाय ने ईसाई धर्म को मानना शुरू किया जबकि बाइबिल के ओल्ड टेस्टमेंट को मानने वालों ने ईसा मसीह  को ईश्वर का पुत्र स्वीकार नहीं किया और वो अब तक अपने मसीहा के अवतार के इंतजार मे है। ओल्ड टेस्टामेण्ट मे कही भी ये स्पष्ट नहीं है की ईश्वर का मसीहा कब अवतरित होगा। इस्लाम की तरह ये एकेश्वरवाद मे विश्वास रखते हैं । मूर्ति पूजा के विरोधी यहूदी खतने पर भी इस्लाम के साथ खड़े हुए दिखाई देते हैं।

4000 साल पुराने यहूदी धर्म का आधिपत्य मिस्र,इराकइजराइल सहित अरब के अधिकांश हिस्सों पर राज था। धीरे धीरे यहूदी भी इज़राइल और जुड़ाया कबीलो मे बट गए ये लोग फारसी यूनानी और ग्रीक कई शासनो के अधीन रहे। रोमन साम्राज्य के बाद जब ईसाई धर्म का उदय हुआ तो यहूदियो पर अत्याचार शुरू हो गए॥ इस्लाम के उदय के बाद इन पर अत्याचार का बढ़ाना  स्वाभाविक था। धीरे धीरे यहूदियों के हाथ  से उनका देश इज़राइल जाता रहा और प्राचीन काल से 20वी शदी तक यहूदियों पर जितने अत्याचार हुए हैं शायद ही किसी जाति पर हुआ हो ॥हिटलर की यहूदियों से दुश्मनी और लाखों यहूदियों की सामूहिक नर संहार इसी कड़ी का उदाहरण है। आज भी पूरा अरब जगत इज़राइल का नामोनिशान मिटा देना चाहता है ।

निरंतर होते अत्याचारो के कारण यूरोप के कई हिस्सों मे रहने वाले यहूदी विस्थापित हो कर फिलिस्तीन आने लगे। 19वी शताब्दी के  के अंत तक यहूदी मातृभूमि (Jewish Homeland") इज़राइल  की मांग जोरों शोरों से उठने लगी ।यहूदियों ने  फिलिस्तीन के अंदर एक अलग राज्य यहूदी मातृभूमि  की मांग की जो जर्मनी या तुर्की के अधीन हो । उन्होने उस समय फिलिस्तीन की मुसलमान जनसंख्या को नजरंदाज कर दिया । यहूदियों का ये सोचना की मुसलमान जनसंख्या यहूदी मातृभूमि की मांग स्वीकार होने के बाद आस पास के अरब देशो मे चली जाएगी ,इस विवाद की नीव मे था ।  यहूदियों ने उस फिलिस्तीन की कल्पना की जिसमे यूरोप से आए हुए लाखो यहूदी निर्णायक बहुमत मे होंगे । प्रथम जियोनिस्ट कांग्रेस की बैठक स्विट्जर लैंड मे हुआ और वहाँ World Zionist Organization (WZO). की स्थापना की गयी । तमाम बैठको और वार्तालापों के बाद 1906 मे विश्व यहूदी संगठन (WZO) ने फिलिस्तीन मे यहूदी मातृभूमि बनाने का निर्णय लिया ।इससे पूर्व अर्जेन्टीना को यहूदी मातृभूमि बनाने को लेकर भी चर्चा हुई थी।
यहूदियों की ये यहूदी मातृभूमि  की कल्पना फिलिस्तीन की बढ़ती हुई मुस्लिम जनसंख्या के कारण एक कभी न खत्म होने वाले विवाद का कारण बन रही थी 1914 तक फिलिस्तीन की कुल जनसंख्या लगभग 7 लाख थी जिसमे 6 लाख अरब मूस्लिम थे और लगभग 1 लाख यहूदी । प्रथम विश्व युद्ध के समय तुर्की ने जर्मनी आस्ट्रिया और हंगरी के साथ मित्र सेनाओं (जिनमे ब्रिटेन भी शामिल था) के विरोध मे  गठबंधन कर लिया। उस समय फिलिस्तीन पर तुर्की सेना का शासन था । इस युद्ध से अरबों और यहूदियों दोनों का भरी नुकसान हो रहा था उसी समय तुर्की के सैनिक शासन ने फिलिस्तीन से उन सभी यहूदियों को खदेड़ना शुरू किया जो रूस और यूरोप के अन्य देशो से आए हुए थे । इसी समय ब्रिटेन ने  अरब और फिलिस्तीन को तुर्की शासन से मुक्ति दिलाने के लिए प्रतिबद्धता जताई बशर्ते अरब देश और फिलिस्तीन तुर्की के विरोध मे मित्र सेनाओं का साथ दे।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन और फ्रांस ने एक गुप्त समझौते  जिसे Sykes-Picot Agreement भी कहते है के अंतरगत  पूरे अरब जगत को दो "प्रभाव क्षेत्रों" मे बाट दिया गया जिसमे रूस की भी स्वीकृति थी । इसके अंतरगत सीरिया और लेबनान फ्रांस के प्रभाव क्षेत्र मे जॉर्डन इराक और फिलिस्तीन ब्रिटेन के क्षेत्र मे और फिलिस्तीन का कुछ क्षेत्र मित्र देशो की संयुक्त सरकार  के क्षेत्र मे था । रूस को  लिए इस्तांबुलतुर्की और अर्मेनिया का कुछ इलाका मिल गया ।
ब्रिटेन को यूएन जनादेश के अनुसार फिलिस्तीन और यहूदी मातृभूमि का क्षेत्र  
सन 1917 मे  ब्रिटेन के विदेश सचिव लार्ड बेलफोर और यहूदी नेता लार्ड रोथसचाइल्ड के बीच एक पत्रव्यवहार हुआ जिसमे लार्ड बेलफोर ने ब्रिटेन की ओर से ये आश्वासन दिया था की फिलिस्तीन को यदियों की मातृभूमि के रूप मे बनाने के लिए वो अपना सम्पूर्ण प्रयास करेंगे हालाँकि जनसंख्या के हिसाब से फिलिस्तीन मे  मुसलमान आबादी उस समय फिलिस्तीन की कुल आबादी की तीन चौथाई से भी ज्यादा थी। इस पत्रव्यवहार को बाद मे “The Balfour declaration”. का नाम दिया गया। मगर अब फिलिस्तीन मुस्लिमो ने "Balfour declaration" का विरोध करना शुरू किया।15 अप्रैल सन 1920 को इटली मे हुए San Remo Conference(सैन रेमो कान्फ्रेंस) मे मित्र देशो ने अमरीका ने फिलिस्तीन के लिए ब्रिटेन को अस्थायी जनादेश  दिया समझौते के अनुसार ब्रिटेन जो की फिलिस्तीन का प्रशासन देखेगा वो फिलिस्तीन को यहूदियों की मातृभूमि के रूप मे विकसित करने के लिए राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियाँ बनाएगा। 

इस जनादेश के अनुसार फिलिस्तीन मे यहूदी हितो को देखने वाली अजेंसी "The Jewish Agency for Palestine,"  से ब्रिटेन का प्रशासन सामंजस्य बना के यहूदी हितों एवं उनके पुनर्वास को आसान करेगा। सन 1920 मे ही ब्रिटेन ने सर हरबर्ट सैमुएल को ब्रिटेन  के फिलिस्तीन कमे पहले  उच्चायुक्त के रूप मे भेजा। (सैन रेमो कान्फ्रेंस) मे जो क्षेत्र यहूदी मातृभूमि के लिए निर्धारित किया गया था वो यहूदी संगठनो की मांग की अपेक्षा काफी बड़ा क्षेत्र था । ये बात भी काही जाने लगी की ये निर्धारण चर्च ने किया और कही कही ऐसे भी विचार रखे गए की ब्रिटेन के पास यहूदी मातृभूमि के लिए कोई सुदृढ़ खाका नहीं था।
सन 1922 मे ब्रिटेन ने जनादेश  वाले हिस्से को दो हिस्सों मे बाट दिया पहला हिस्सा जो अपेक्षाकृत बड़ा था वो ट्रांसजार्डन(बाद मे जार्डन) कहा गया और छोटा हिस्सा फिलिस्तीन कहा गया। दोनों हिस्से ब्रिटेन के प्रभाव क्षेत्र मे ही थे । बाद मे जार्डन को एक स्वतंत्र देश के रूप मे मान्यता मिल गयी । मगर इसके साथ यहूदियों का एक बड़ा हिस्सा इसे अपने साथ किए गए विश्वासघात के रूप मे देखने लगा क्यूकी  प्रस्तावित यहूदी मातृभूमि का एक बहुत बड़ा हिस्सा ट्रांसजार्डन के रूप मे उनके हाथ से निकाल चुका था ।
ट्रांसजार्डन अलग करने के बाद बचा क्षेत्र 
अब जैसा की मित्रदेशों का ब्रिटेन को जनादेश था फिलिस्तीन मे एक स्थानीय और स्वशासनीय सरकार का प्रबंध मगर यहूदी ऐसे किसी भी स्वशासनीय सरकार  के प्रबंध से डरे हुए थे क्यूकी इसमे जनसंख्या के अनुपात से अरबों की  बहुलता हो जाती दूसरी तरफ अरबों को कोई भी ऐसी व्यवस्था स्वीकार नहीं थी जिसमे यहूदियों की कोई भी भागीदारी हो। अतः किसी भी प्रकार की व्यवस्था नहीं बन पायी॥ 

अब धीरे धीरे अरबों और यहूदियों मे टकराव शुरू हो गया और दंगे होने लगे । अरबों के अनुसार फिलिस्तीन मे यहूदियों के विश्व के अन्य हिस्सो से आ के बसने  के कारण फिलिस्तीनी अरबों को निर्वासित होना पड़ेगा । नाजियों से पहले भी पोलैंड और पूर्वी यूरोप के कई भागो से यहूदी फिलिस्तीन आने लगे हिटलर के नाजी शासन मे यहूदी एजेंसियों ने हिटलर से एक समझौता कर हजारो लोगो को फिलस्तीन मे बसाकर उनकी जान बचाई। सन 1936 मे अरबों ने विद्रोह  कर दिया। विद्रोह का कारण ब्रिटेन के फौजों द्वारा  एक मुस्लिम धर्मगुरु की हत्या थी जो फिलिस्तीन मे यहूदियों और ब्रिटेन के खिलाफ झण्डा उठाए हुए था। इस विद्रोह मे हजारो अरब और यहूदी मारे गए। इस विद्रोह को हवा देने मे यहूदियों का कट्टर दुश्मन हिटलर और इटली के फासिस्ट शामिल थे । इसके बाद इंग्लैंड ने एक प्रस्ताव रखा जिसमे एक  यहूदी मातृभूमि दूसरा फिलिस्तीनी अरबों का क्षेत्र होगा इसे अरब देशो ने नकार दिया ॥
अरब बिद्रोह के बाद ब्रिटेन की सरकार ने एक श्वेत पत्र जारी किया जिसके अनुसार हर साल मे 10 हजार यहूदी परिवारों को फिलिस्तीन मे 5 सालो के लिए बसने की अनुमति होगी। उसके बाद अरबों के अनुमोदन के बाद ही वो फिलिस्तीन मे रह सकते है। यहूदियों ने इस श्वेत पत्र को सिरे से नकार दिया । अब यहूदियों और अरबों का फिलिस्तीन पर कब्जे के लिए संघर्ष भूमिगत सशस्त्र समूहो के माध्यम से शुरू हो गया जिसमे प्रकारांतर से ब्रिटेन ,नाजी और अरब देश भी सहायक होने लगे । स्वेत पत्र के बाद यहूदियों ने अरबों के साथ साथ ब्रिटेन को भी निशाना बनाना शुरू कर दिया था । अब सारे यहूदी बिद्रोही समूह एकजुट होकर ब्रिटेन के अधिकारियों क्लबो और ट्रेनों को निशाना बनाने लगे । वो किसी भी प्रकार ब्रिटेन को फिलिस्तीन से बाहर कर देना चाहते थे ।

सन 1945 मे ब्रिटेन मे लेबर पार्टी की सरकार आई और उसने यहूदियों को ये आश्वासन दिया की वो  ब्रिटेन सरकार के स्वेत पत्र को वापस लेंगे और यहूदियों की मातृभूमि का समर्थन करेंगे साथ ही साथ विश्व के हर कोने से यहूदियों के फिलिस्तीन मे पुनर्वसन की प्रक्रिया दोगुनी की जाएगी ।हालांकि यहूदी बिद्रोही समूहों के लिए ये आश्वासन भर सिर्फ काफी नहीं था उन्होने अवैध रूप से यहूदियों को फिलिस्तीन मे लाना जारी रखा । अमरीका और अन्य देशो ने भी अब ब्रिटेन पर फिलिस्तीन मे यहूदियों के पुनर्वास के लिए दबाव डालना शुरू किया । एक एंग्लो - अमेरिकन जांच के लिए समिति ने तत्काल 1 लाख यहूदियों के फिलिस्तीन मे पुनर्वास की सिफ़ारिश की । इसका अरबों ने विरोध किया और वो भी ब्रिटेन पर दबाव डालने लगे ॥ 

ये वो समय था जब ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज अस्त हो रहा था । अब ब्रिटेन के लिए फिलिस्तीन एक गले की हड्डी बन गया था ब्रिटेन ने कोई सूरत न देखते हुए उसे संयुक्त राष्ट्र के हवाले करके खुद को विवाद से अलग करने मे भलाई समझी और फिलिस्तीन के भविष्य का निर्धारण अब संयुक्त
राष्ट्र के हाथो मे था ॥

संयुक्त राष्ट्र ने अर्ब और यहूदियों का फिलिस्तीन मे टकराव देखते हुए फिलिस्तीन को दो हिस्सों अरब राज्य और यहूदी राज्य(इज़राईल) मे विभाजित कर दिया । जेरूसलम जो ईसाई 
,अरब और यहूदी तीनों के लिए धार्मिक महत्त्व का क्षेत्र था उसे अंतर्राष्ट्रीय प्रबंधन के अंतर्गत रखे जाने का प्रस्ताव हुआ ।इस व्यवस्था में जेरुसलेम को " सर्पुर इस्पेक्ट्रुम "(curpus spectrum) कहा गया ।  29 नवम्बर 1947 को संयुक्त राष्ट्र मे  ये प्रस्ताव पास हो गया । यहूदियों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया जबकि अरबों ने इसे नकार दिया। इस प्रस्ताव के अंतर्गत फिलिस्तीन को दो बराबर हिस्सों अरब राज्य और यहूदी राज्य(इज़राईल) मे विभाजित किया जाना था मगर इस विभाजन मे सीमा रेखा काफी जटिल और उलझी हुई थी। इस कारण थोड़े ही दिन मे ये परिलक्षित हो गया की ये विभाजन लागू नहीं किया जा सकेगा। इस विभाजन मे फिलिस्तीन की 70% अरब लोगो को 42% क्षेत्र मिला था जबकि यही लोग विभाजन के पहले 92% क्षेत्र पर काबिज थे अतः किसी भी प्रकार से ये विभाजन अरबों को मान्य नहीं था । 
सन 1948 के मई महीने मे ब्रिटेन की सेनाएँ वापस लौट गयी हलाकी इस समय तक इज़राइल और फिलिस्तीन की वास्तविक सीमा रेखा निर्धारित नहीं हो पायी थी। अब यहूदियों और फिलिस्तीनी अरबों मे खूनी टकराव शुरू हो गया । १४ मई१९४८ को यहूदियों ने स्वतन्त्रता की घोषणा करते हुए इज़राइल नाम के एक नए देश का ऐलान  कर दिया। अगले ही दिन अरब देशों- मिस्रजोर्डनसीरियालेबनान और इराक़ ने मिलकर इज़राइल पर हमला कर दिया। इसे 1948 का युद्ध का नाम दिया गया और यही से अरब इज़राइल युद्ध की शुरुवात हो गयी। इज़राइल के इस संघर्ष को अरबों ने "नक़बा" का नाम दिया हजारो अरब बेघर हुए और इज़राइली कब्जे वाले इलाको से खदेड़ दिये गए। हालांकि इज़राइली हमेशा ये कहते आए की ये सारे अरब लोग अरब की सेनाओं को रास्ता देने के लिए भाग गए थे ,मगर इज़राइल ने एक कानून पारित किया जिसके अनुसार जो फिलिस्तीनी (अब इज़राइली अरब) नक़बा के दौरान भाग गए थे वो इज़राइल वापस नहीं आ सकते और उनकी जमीनो पर विश्व के सभी हिस्सों से आने वाले यहूदियों को बसाने लगी इज़राइली सरकार ।युद्ध के शुरुवाती कुछ महीनो मे अरब देशो  की सेना इज़राइल पर भारी पड़ रही थी जून 1948 मे एक  युद्ध विराम ने अरबों और इजराइलियो दोनों को पुनः तैयारिया करने का मौका दिया यही अरब देश गलती कर बैठे और इजराइलियों ने तैयारी पूरी की चेकोस्लोवाकिया के सहयोग से अब युद्ध का पलड़ा इजराइलियों की तरफ झुक गया और अंततः इजराइलियों की विजय और अरबों की इस युद्ध मे हार हुई । इसके साथ साथ शरणार्थी समस्या की शुरुवात ।
इज़राइल फिलिस्तीन का मानचित्र समयानुसर 
1949 मे समझौते से जार्डन और इज़राइल के बीच ग्रीन लाइन नामक सीमा रेखा का निर्धारण हुआ। वेस्ट बैंक(जार्डन नदी के पश्चिमी हिस्से) पर जार्डन और गाजा पट्टी पर मिस्र(इजिप्ट) का कब्जा हो गया । इस पूरे घटनाक्रम मे लगभग 1 लाख फिलिस्तीनी बेघर हुए॥ ये सभी फिलिस्तीनी आस पास के अरब देशो मे जा शरणार्थी के रूप मे जीवन व्यतीत कर रहे थे ॥  इज़राइल को ११ मई ,१९४९  को सयुक्त राष्ट्र की मान्यता हासिल  हुई । हलाकी अरब देशो  ने कभी भी इस समझौते को स्थायी शांति समझौते के रूप मे स्वीकार नहीं किया । और दूसरी तरफ इज़राइल भी फिलिस्तीनी  शरणार्थीयों को वापस लेने के लिए तैयार नहीं हुआ।

इसके बाद इजराइलियों और फिलिस्तीनीयों अरबों के बीच खूनी संघर्ष जारी रहा । सन 1964 मे फिलिस्तीन लिबरेशन के गठन के बाद 1965 मे फिलिस्तीनि क्रांति की शुरुवात हो गयी।फिलिस्तीन लिबरेशन का गठन इज़राइल को खतम करने के उद्देश्य से हुआ था । इधर अमरीका ने अरब मे अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए इज़राइल को हथियारों और आर्थिक मदद देनी शुरू की। जून ५,१९६७ को इजराइल ने मिस्त्र ,जोर्डन सीरिया तथा इराक के खिलाफ युद्ध घोषित किया और ये युद्ध 6 दिनो तक चला इस युद्ध ने अरब जगत के सभी समीकरणों को बदल के रख दिया इज़राइल ने 1947 के यूएन क्षेत्र से कई गुना अधिक भू भाग एवं पर कब्जा कर लिया  और अब गाजा पट्टी पर भी इज़राइली कब्जा था । 6 अक्तूबर 1973 को एक बार फिर सीरिया और मिस्र ने इज़राइल पर हमला किया मगर इसमे भी उन्हे हार का सामना करना पड़ा और भूभाग गंवाना पड़ा ।1974 के अरब अरब शिखर सम्मेलन मे पीएलओ को फिलिस्तीनी लोगो का प्रतिनिधि के रूप मे अधिकृत किया ।  अब संयुक्त राष्ट्र संघ मे फिलिस्तीन का प्रतिनिधित्व पीएलओ के नेता यासर अराफात कर रहे थे । इसके बाद एक तरफ कंप डेविड से लेकर ओस्लो तक शांति समझौते होते   रहे तो दूसरी ओर पीएलओ और मोसाद मे खूनी संघर्ष जारी था। मगर इज़राइल और फिलिस्तीन की सीमा का निर्धारण नहीं हुआ ।
मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात इज़राइल को मान्यता देने वाले पहले अरब नेता बने. अरब देशों ने मिस्र का बहिष्कार किया ।अनवर सादात  ने  1977 मे इसराइली संसद में भाषण दिया. सादत ने चुकी इजराइलियो से संधि की अतः अरब चरमपंथियों ने बाद मे उनकी 1981 मे हत्या कर दी। 1987 मे फिलिस्तीनीयों ने मुक्ति के लिए आंदोलन किया और उनका इज़राइली सेनाओं से टकराव शुरू हो गया । 13 सितंबर 1993 को अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की मध्यस्थता मे इज़रायली प्रधानमंत्री यित्साक राबीन और फिलस्तीनी स्वायत्त शासन के अध्यक्ष यासिर अराफत ने नार्वे की राजधानी ओस्लो मे ओस्लो शांति समझौता किया, समझौता के अनुसार इज़राइल 1967 से अपने क़ब्ज़े वाले फिलस्तीनी इलाकों से हटेगा। एक फिलस्तीनी प्रशासन स्थापित किया जाएगा और एक दिन फिलस्तीनियों को एक देश के तौर पर स्वतंत्रता मिलेगी। गाजा पट्टी के फिलिस्तीन के कब्जे मे आते ही हमास की हिंसक गतिविधियां और तेज हो गयी और उसी अनुपात मे इज़राइली प्रतिरोध । ओस्लो समझौते से जिस अरब इज़राइल संघर्ष पर विराम लगता प्रतीत हुआ समस्या पुनः वही आ के खड़ी  हो गयी॥ समय समय पर हमास द्वारा इज़राइल पर गाजा पट्टी से हमले किए जाते रहते हैं और इज़राइल के लिए अपने नागरिकों की  आत्मरक्षा के लिए बार बार युद्ध ॥॥इजरायल हर हमले के बाद कहता है की वो हमास को निशाना बना रहा है लेकिन अरब  देश इन हमलो मे आम मुसलमानो के मारे जाने की बात कहते हैं॥   इस्लाम यहूदी और ईसाई धर्म के उत्पत्ति काल से जुड़ी हुई ये समस्या अरब और पश्चिमी जगत के  सामरिक हितो के कारण और भी जटिल होती जा रही है आज भी लाखो फिलिस्तीनी शरणार्थी घर वापसी की रह देख रहे हैं तो दूसरी ओर इज़राइल हमास के हमलो से निपट रहा है। 

Other View Available on Israel and Palestine conflict : 



 According to Arab media 18 terrorist groups operate from Gaza including ISIS. ISIS profess to have managed to infiltrate into Israel a week ago. Over 100,000 “Palestinian” children were enrolled in terror training camps (“Summer camps”) in 2013 to learn to blow themselves up and kill Jews and to serve the Caliphate cause outside of Israel. Parents who enroll children into terrorist camps to pledge alliance to Hamas for the rest of their lives (basically, sold to Hamas) get remunerated with a type of salary or pension, and receive free healthcare and housing through billions of dollars in aid pouring in from all over the world to support the “cause” for a mere 4.3 million population.
Palestine is a terrorist state created through strategic mass immigration from surrounding areas, mainly Egypt and Saudi Arabia, to commit religious jihad in the 1930’s by Hitler ally Amin Al-Husseini. For this reason none of the Arab countries want to allow re-entry of “Palestinian” people to their native countries. They are stuck in Gaza.

Wife of Hamas MP Al-Hayya (whoms son got killed): A Woman’s Role Is to Instill Love of Jihad and Martyrdom in Her Children: “Paradise require from us our blood, or body remains. It is our duty to wage Jihad”

 







* all this is copied and edited

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