मैकाले की प्रासंगिकता और भारत की वर्तमान शिक्षा एवं समाज व्यवस्था में मैकाले प्रभाव :
२ फ़रवरी १८३५ को ब्रिटेन की संसद में मैकाले की भारत के प्रति विचार और योजना मैकाले के शब्दों में..
" मैं भारत के कोने कोने में घुमा हूँ..मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया, जो भिखारी हो ,जो चोर हो, इस देश में मैंने इतनी धन दौलत देखी है,इतने ऊँचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं,की मैं नहीं समझता की हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे,जब तक इसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है.
और इसलिए मैं ये प्रस्ताव रखता हूँ की हम इसकी पुराणी और पुरातन शिक्षा व्यवस्था,उसकी संस्कृति को बदल डालें,क्युकी अगर भारतीय सोचने लग गए की जो भी बिदेशी और अंग्रेजी है वह अच्छा है,और उनकी अपनी चीजों से बेहतर है ,तो वे अपने आत्मगौरव और अपनी ही संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बनजाएंगे जैसा हम चाहते हैं.एक पूर्णरूप से गुलाम भारत "
कई सेकुलर बंधू इस भाषण की पंक्तियों को कपोल कल्पित कल्पना मानते है.. अगर ये कपोल कल्पित पंक्तिया है, तो इन काल्पनिक पंक्तियों का कार्यान्वयन कैसे हुआ??? सेकुलर मैकाले की गद्दार औलादे इस प्रश्न पर बगले झाकती दिखती है..और कार्यान्वयन कुछ इस तरह हुआ की आज भी मैकाले व्योस्था की औलादे छद्म सेकुलर भेष में यत्र तत्र बिखरी पड़ी हैं..
अरे भाई मैकाले ने क्या नया कह दिया भारत के लिए??,भारत इतना संपन्न था की पहले सोने चांदी के सिक्के चलते थे कागज की नोट नहीं..धन दौलत की कमी होती तो इस्लामिक आतातायी श्वान और अंग्रेजी दलाल यहाँ क्यों आते..लाखों करोड़ रूपये के हीरे जवाहरात ब्रिटेन भेजे गए जिसके प्रमाण आज भी हैं मगर ये मैकाले का प्रबंधन ही है की आज भी हम लोग दुम हिलाते हैं अंग्रेजी और अंग्रेजी संस्कृति के सामने..हिन्दुस्थान के बारे में बोलने वाला संकृति का ठेकेदार कहा जाता है और घृणा का पात्र होता है इस सभ्य समाज का..
शिक्षा व्यवस्था में मैकाले प्रभाव : ये तो हम सभी मानते है की हमारी शिक्षा व्यवस्था हमारे समाज की दिशा एवं दशा तय करती है..बात १८२५ के लगभग की है..जब ईस्ट इंडिया कंपनी वितीय रूप से संक्रमण काल से गुजर रही थी और ये संकट उसे दिवालियेपन की कगार पर पहुंचा सकता था..कम्पनी का काम करने के लिए ब्रिटेन के स्नातक और कर्मचारी अब उसे महंगे पड़ने लगे थे..
१८२८ में गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक भारत आया जिसने लागत घटने के उद्देश्य से अब प्रसाशन में भारतीय लोगों के प्रवेश के लिए चार्टर एक्ट में एक प्रावधान जुड़वाया की सरकारी नौकरी में धर्म जाती या मूल का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा..
यहाँ से मैकाले का भारत में आने का रास्ता खुला..अब अंग्रेजों के सामने चुनौती थी की कैसे भारतियों को उस भाषा में पारंगत करें जिससे की ये अंग्रेजों के पढ़े लिखे हिंदुस्थानी गुलाम की तरह कार्य कर सकें..इस कार्य को आगे बढाया जनरल कमेटी ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन के अध्यक्ष थोमस बैबिंगटन मैकाले ने ....मैकाले की सोच स्पष्ट थी...जो की उसने ब्रिटेन की संसद में बताया जैसा ऊपर वर्णन है..
उसने पूरी तरह से भारतीय शिक्षा व्यवस्था को ख़तम करने और अंग्रेजी(जिसे हम मैकाले शिक्षा व्यवस्था भी कहते है) शिक्षा व्यवस्था को लागु करने का प्रारूप तैयार किया..
मैकाले के शब्दों में:
"हमें एक हिन्दुस्थानियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है जो हम अंग्रेज शासकों एवं उन करोड़ों भारतीयों के बीच दुभाषिये का काम कर सके, जिन पर हम शासन करते हैं। हमें हिन्दुस्थानियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है, जिनका रंग और रक्त भले ही भारतीय हों लेकिन वह अपनी अभिरूचि, विचार, नैतिकता और बौद्धिकता में अंग्रेज हों"
और देखिये आज कितने ऐसे मैकाले व्योस्था की नाजायज श्वान रुपी संताने हमें मिल जाएंगी..जिनकी मात्रभाषा अंग्रेजी है और धर्मपिता मैकाले..
इस पद्दति को मैकाले ने सुन्दर प्रबंधन के साथ लागु किया..अब अंग्रेजी के गुलामों की संख्या बढने लगी और जो लोग अंग्रेजी नहीं जानते थे वो अपने आप को हीन भावना से देखने लगे क्यूकी सरकारी नौकरियों के ठाट उन्हें दीखते थे अपने भाइयों के जिन्होंने अंग्रेजी की गुलामी स्वीकार कर ली..और ऐसे गुलामों को ही सरकारी नौकरी की रेवड़ी बटती थी....
कालांतर में वे ही गुलाम अंग्रेजों की चापलूसी करते करते उन्नत होते गए और अंग्रेजी की गुलामी न स्वीकारने वालों को अपने ही देश में दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया..विडम्बना ये हुए की आजादी मिलते मिलते एक बड़ा वर्ग इन गुलामों का बन गया जो की अब स्वतंत्रता संघर्ष भी कर रहा था..यहाँ भी मैकाले शिक्षा व्यवस्था चाल कामयाब हुई अंग्रेजों ने जब ये देखा की भारत में रहना असंभव है तो कुछ मैकाले और अंग्रेजी के गुलामों को सत्ता हस्तांतरण कर के ब्रिटेन चले गए..मकसद पूरा हो चुका था.... अंग्रेज गए मगर उनकी नीतियों की गुलामी अब आने वाली पीढ़ियों को करनी थी...और उसका कार्यान्वयन करने के
लिए थे कुछ हिन्दुस्तानी भेष में बौधिक और वैचारिक रूप से अंग्रेज नेता और देश के रखवाले ..(नाम नहीं लूँगा क्युकी एडविना की आत्मा को कष्ट होगा)
कालांतर में ये ही पद्धति विकसित करते रहे हमारे सत्ता के महानुभाव..इस प्रक्रिया में हमारी भारतीय भाषाएँ गौड़ होती गयी और हिन्दुस्थान में हिंदी विरोध का स्वर उठने लगा..ब्रिटेन की बौधिक गुलामी के लिए आज का भारतीय समाज आन्दोलन करने लगा..फिर आया उपभोगतावाद का दौर और मिशिनरी स्कूलों का दौर..चूँकि २०० साल हमने अंग्रेजी को विशेष और भारतीयता को गौण मानना शुरू कर दिया था तो अंग्रेजी का मतलब सभ्य होना,उन्नत होना माना जाने लगा..
हमारी पीढियां मैकाले के प्रबंधन के अनुसार तैयार हो रही थी और हम भारत के शिशु मंदिरों को सांप्रदायिक कहने लगे क्युकी भारतीयता और वन्दे मातरम वहां सिखाया जाता था...जब से बहुराष्ट्रीय कंपनिया आयीं उन्होंने अंग्रेजो का इतिहास दोहराना शुरू किया और हम सभी सभ्य बनने में उन्नत बनने में लगे रहे मैकाले की पद्धति के अनुसार..
अब आज वर्तमान में हमें नौकरी देने वाली हैं अंग्रेजी कंपनिया जैसे इस्ट इंडिया थी..अब ये ही कंपनिया शिक्षा व्यवस्था भी निर्धारित करने लगी और फिर बात वही आयी कम लागत वाली, तो उसी तरह का अवैज्ञानिक व्योस्था बनाओं जिससे कम लागत में हिन्दुस्थानियों के श्रम एवं बुद्धि का दोहन हो सके..
एक उदहारण देता हूँ कुकुरमुत्ते की तरह हैं इंजीनियरिंग और प्रबंधन संस्थान..मगर शिक्षा पद्धति ऐसी है की १००० इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियरिंग स्नातकों में से शायद १० या १५ स्नातक ही रेडियो या किसी उपकरण की मरम्मत कर पायें नयी शोध तो दूर की कौड़ी है..
अब ये स्नातक इन्ही अंग्रेजी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पास जातें है, और जीवन भर की प्रतिभा ५ हजार रूपए प्रति महीने पर गिरवी रख गुलामों सा कार्य करते है...फिर भी अंग्रेजी की ही गाथा सुनाते है..
अब जापान की बात करें १०वीं में पढने वाला छात्र भी प्रयोगात्मक ज्ञान रखता है...किसी मैकाले का अनुसरण नहीं करता..
अगर कोई संस्थान अच्छा है जहाँ भारतीय प्रतिभाओं का समुचित विकास करने का परिवेश है तो उसके छात्रों को ये कंपनिया किसी भी कीमत पर नासा और इंग्लैंड में बुला लेती है और हम मैकाले के गुलाम खुशिया मनाते है की हमारा फला अमेरिका में नौकरी करता है..
इस प्रकार मैकाले की एक सोच ने हमारी आने वाली शिक्षा व्यवस्था को इस तरह पंगु बना दिया की न चाहते हुए भी हम उसकी गुलामी में फसते जा रहें है..
समाज व्यवस्था में मैकाले प्रभाव : अब समाज व्योस्था की बात करें तो शिक्षा से समाज का निर्माण होता है.. शिक्षा अंग्रेजी में हुए तो समाज खुद ही गुलामी करेगा..वर्तमान परिवेश में MY HINDI IS A LITTLE BIT WEAK बोलना स्टेटस सिम्बल बन रहा है जैसा मैकाले चाहता था की हम अपनी संस्कृति को हीन समझे ...
मैं अगर कहीं यात्रा में हिंदी बोल दू,मेरे साथ का सहयात्री सोचता है की ये पिछड़ा है..लोग सोचते है त्रुटी हिंदी में हो जाए चलेगा मगर अंग्रेजी में नहीं होनी चाहिए..और अब हिंगलिश भी आ गयी है बाज़ार में..क्या ऐसा नहीं लगता की इस व्योस्था का हिंदुस्थानी धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का होता जा रहा है....अंग्रेजी जीवन में पूर्ण रूप से नहीं सिख पाया क्यूकी बिदेशी भाषा है...और हिंदी वो सीखना नहीं चाहता क्यूकी बेइज्जती होती है...
हमें अपने बच्चे की पढाई अंग्रेजी विद्यालय में करानी है क्यूकी दौड़ में पीछे रह जाएगा..माता पिता भी क्या करें बच्चे को क्रांति के लिए भेजेंगे क्या??? क्यूकी आज अंग्रेजी न जानने वाला बेरोजगार है..स्वरोजगार के संसाधन ये बहुराष्ट्रीय कंपनिया ख़तम कर देंगी फिर गुलामी तो करनी ही होगी..तो क्या हम स्वीकार कर लें ये सब?? या हिंदी पढ़कर समाज में उपेक्षा के पात्र बने????
शायद इसका एक ही उत्तर है हमे वर्तमान परिवेश में हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित उच्च आदर्शों को स्थापित करना होगा..हमें विवेकानंद का "स्व" और क्रांतिकारियों का देश दोनों को जोड़ कर स्वदेशी की कल्पना को मूर्त रूप देने का प्रयास करना होगा..चाहे भाषा हो या खान पान या रहन सहन पोशाक...
अगर मैकाले की व्योस्था को तोड़ने के लिए मैकाले की व्योस्था में जाना पड़े तो जाएँ ....जैसे मैं अंग्रेजी गूगल का इस्तेमाल करके हिंदी लिख रहा हूँ..
क्यूकी कीचड़ साफ करने के लिए हाथ गंदे करने होंगे..हर कोई छद्म सेकुलर बनकर सफ़ेद पोशाक पहन कर मैकाले के सुर में गायेगा तो आने वाली पीढियां हिन्दुस्थान को ही मैकाले का भारत बना देंगी.. उन्हें किसी ईस्ट इंडिया की जरुरत ही नहीं पड़ेगी गुलाम बनने के लिए..और शायद हमारे आदर्शो राम और कृष्ण को एक कार्टून मनोरंजन का पात्र....
हिंदी बचाओ हिन्दुस्थान बनाओ
जय हिंद...
copied, source: http://ashutoshnathtiwari.blogspot.in/2011/04/blog-post_24.html?showComment=1449600778116#c5111192623479523098
मैकाले नाम हम अक्सर सुनते है मगर ये कौन था? इसके उद्देश्य और विचार क्या थे कुछ बिन्दुओं की विवेचना का प्रयास हैं करते.
मैकाले: मैकाले का पूरा नाम था थोमस बैबिंगटन मैकाले .. अगर ब्रिटेन के नजरियें से देखें तो अंग्रेजों का ये एक अमूल्य रत्न था .. एक उम्दा इतिहासकार, लेखक प्रबंधक, विचारक और देशभक्त ..इसलिए इसे लार्ड की उपाधि मिली थी और इसे लार्ड मैकाले कहा जाने लगा..अब इसके महिमामंडन को छोड़ मैं इसके एक ब्रिटिश संसद को दिए गए प्रारूप का वर्णन करना उचित समझूंगा जो इसने भारत पर कब्ज़ा बनाये रखने के लिए दिया था...
मैकाले: मैकाले का पूरा नाम था थोमस बैबिंगटन मैकाले .. अगर ब्रिटेन के नजरियें से देखें तो अंग्रेजों का ये एक अमूल्य रत्न था .. एक उम्दा इतिहासकार, लेखक प्रबंधक, विचारक और देशभक्त ..इसलिए इसे लार्ड की उपाधि मिली थी और इसे लार्ड मैकाले कहा जाने लगा..अब इसके महिमामंडन को छोड़ मैं इसके एक ब्रिटिश संसद को दिए गए प्रारूप का वर्णन करना उचित समझूंगा जो इसने भारत पर कब्ज़ा बनाये रखने के लिए दिया था...
२ फ़रवरी १८३५ को ब्रिटेन की संसद में मैकाले की भारत के प्रति विचार और योजना मैकाले के शब्दों में..
" मैं भारत के कोने कोने में घुमा हूँ..मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया, जो भिखारी हो ,जो चोर हो, इस देश में मैंने इतनी धन दौलत देखी है,इतने ऊँचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं,की मैं नहीं समझता की हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे,जब तक इसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है.
और इसलिए मैं ये प्रस्ताव रखता हूँ की हम इसकी पुराणी और पुरातन शिक्षा व्यवस्था,उसकी संस्कृति को बदल डालें,क्युकी अगर भारतीय सोचने लग गए की जो भी बिदेशी और अंग्रेजी है वह अच्छा है,और उनकी अपनी चीजों से बेहतर है ,तो वे अपने आत्मगौरव और अपनी ही संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बनजाएंगे जैसा हम चाहते हैं.एक पूर्णरूप से गुलाम भारत "
कई सेकुलर बंधू इस भाषण की पंक्तियों को कपोल कल्पित कल्पना मानते है.. अगर ये कपोल कल्पित पंक्तिया है, तो इन काल्पनिक पंक्तियों का कार्यान्वयन कैसे हुआ??? सेकुलर मैकाले की गद्दार औलादे इस प्रश्न पर बगले झाकती दिखती है..और कार्यान्वयन कुछ इस तरह हुआ की आज भी मैकाले व्योस्था की औलादे छद्म सेकुलर भेष में यत्र तत्र बिखरी पड़ी हैं..
अरे भाई मैकाले ने क्या नया कह दिया भारत के लिए??,भारत इतना संपन्न था की पहले सोने चांदी के सिक्के चलते थे कागज की नोट नहीं..धन दौलत की कमी होती तो इस्लामिक आतातायी श्वान और अंग्रेजी दलाल यहाँ क्यों आते..लाखों करोड़ रूपये के हीरे जवाहरात ब्रिटेन भेजे गए जिसके प्रमाण आज भी हैं मगर ये मैकाले का प्रबंधन ही है की आज भी हम लोग दुम हिलाते हैं अंग्रेजी और अंग्रेजी संस्कृति के सामने..हिन्दुस्थान के बारे में बोलने वाला संकृति का ठेकेदार कहा जाता है और घृणा का पात्र होता है इस सभ्य समाज का..
शिक्षा व्यवस्था में मैकाले प्रभाव : ये तो हम सभी मानते है की हमारी शिक्षा व्यवस्था हमारे समाज की दिशा एवं दशा तय करती है..बात १८२५ के लगभग की है..जब ईस्ट इंडिया कंपनी वितीय रूप से संक्रमण काल से गुजर रही थी और ये संकट उसे दिवालियेपन की कगार पर पहुंचा सकता था..कम्पनी का काम करने के लिए ब्रिटेन के स्नातक और कर्मचारी अब उसे महंगे पड़ने लगे थे..
१८२८ में गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक भारत आया जिसने लागत घटने के उद्देश्य से अब प्रसाशन में भारतीय लोगों के प्रवेश के लिए चार्टर एक्ट में एक प्रावधान जुड़वाया की सरकारी नौकरी में धर्म जाती या मूल का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा..
यहाँ से मैकाले का भारत में आने का रास्ता खुला..अब अंग्रेजों के सामने चुनौती थी की कैसे भारतियों को उस भाषा में पारंगत करें जिससे की ये अंग्रेजों के पढ़े लिखे हिंदुस्थानी गुलाम की तरह कार्य कर सकें..इस कार्य को आगे बढाया जनरल कमेटी ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन के अध्यक्ष थोमस बैबिंगटन मैकाले ने ....मैकाले की सोच स्पष्ट थी...जो की उसने ब्रिटेन की संसद में बताया जैसा ऊपर वर्णन है..
उसने पूरी तरह से भारतीय शिक्षा व्यवस्था को ख़तम करने और अंग्रेजी(जिसे हम मैकाले शिक्षा व्यवस्था भी कहते है) शिक्षा व्यवस्था को लागु करने का प्रारूप तैयार किया..
मैकाले के शब्दों में:
"हमें एक हिन्दुस्थानियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है जो हम अंग्रेज शासकों एवं उन करोड़ों भारतीयों के बीच दुभाषिये का काम कर सके, जिन पर हम शासन करते हैं। हमें हिन्दुस्थानियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है, जिनका रंग और रक्त भले ही भारतीय हों लेकिन वह अपनी अभिरूचि, विचार, नैतिकता और बौद्धिकता में अंग्रेज हों"
और देखिये आज कितने ऐसे मैकाले व्योस्था की नाजायज श्वान रुपी संताने हमें मिल जाएंगी..जिनकी मात्रभाषा अंग्रेजी है और धर्मपिता मैकाले..
इस पद्दति को मैकाले ने सुन्दर प्रबंधन के साथ लागु किया..अब अंग्रेजी के गुलामों की संख्या बढने लगी और जो लोग अंग्रेजी नहीं जानते थे वो अपने आप को हीन भावना से देखने लगे क्यूकी सरकारी नौकरियों के ठाट उन्हें दीखते थे अपने भाइयों के जिन्होंने अंग्रेजी की गुलामी स्वीकार कर ली..और ऐसे गुलामों को ही सरकारी नौकरी की रेवड़ी बटती थी....
कालांतर में वे ही गुलाम अंग्रेजों की चापलूसी करते करते उन्नत होते गए और अंग्रेजी की गुलामी न स्वीकारने वालों को अपने ही देश में दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया..विडम्बना ये हुए की आजादी मिलते मिलते एक बड़ा वर्ग इन गुलामों का बन गया जो की अब स्वतंत्रता संघर्ष भी कर रहा था..यहाँ भी मैकाले शिक्षा व्यवस्था चाल कामयाब हुई अंग्रेजों ने जब ये देखा की भारत में रहना असंभव है तो कुछ मैकाले और अंग्रेजी के गुलामों को सत्ता हस्तांतरण कर के ब्रिटेन चले गए..मकसद पूरा हो चुका था.... अंग्रेज गए मगर उनकी नीतियों की गुलामी अब आने वाली पीढ़ियों को करनी थी...और उसका कार्यान्वयन करने के
लिए थे कुछ हिन्दुस्तानी भेष में बौधिक और वैचारिक रूप से अंग्रेज नेता और देश के रखवाले ..(नाम नहीं लूँगा क्युकी एडविना की आत्मा को कष्ट होगा)
कालांतर में ये ही पद्धति विकसित करते रहे हमारे सत्ता के महानुभाव..इस प्रक्रिया में हमारी भारतीय भाषाएँ गौड़ होती गयी और हिन्दुस्थान में हिंदी विरोध का स्वर उठने लगा..ब्रिटेन की बौधिक गुलामी के लिए आज का भारतीय समाज आन्दोलन करने लगा..फिर आया उपभोगतावाद का दौर और मिशिनरी स्कूलों का दौर..चूँकि २०० साल हमने अंग्रेजी को विशेष और भारतीयता को गौण मानना शुरू कर दिया था तो अंग्रेजी का मतलब सभ्य होना,उन्नत होना माना जाने लगा..
हमारी पीढियां मैकाले के प्रबंधन के अनुसार तैयार हो रही थी और हम भारत के शिशु मंदिरों को सांप्रदायिक कहने लगे क्युकी भारतीयता और वन्दे मातरम वहां सिखाया जाता था...जब से बहुराष्ट्रीय कंपनिया आयीं उन्होंने अंग्रेजो का इतिहास दोहराना शुरू किया और हम सभी सभ्य बनने में उन्नत बनने में लगे रहे मैकाले की पद्धति के अनुसार..
अब आज वर्तमान में हमें नौकरी देने वाली हैं अंग्रेजी कंपनिया जैसे इस्ट इंडिया थी..अब ये ही कंपनिया शिक्षा व्यवस्था भी निर्धारित करने लगी और फिर बात वही आयी कम लागत वाली, तो उसी तरह का अवैज्ञानिक व्योस्था बनाओं जिससे कम लागत में हिन्दुस्थानियों के श्रम एवं बुद्धि का दोहन हो सके..
एक उदहारण देता हूँ कुकुरमुत्ते की तरह हैं इंजीनियरिंग और प्रबंधन संस्थान..मगर शिक्षा पद्धति ऐसी है की १००० इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियरिंग स्नातकों में से शायद १० या १५ स्नातक ही रेडियो या किसी उपकरण की मरम्मत कर पायें नयी शोध तो दूर की कौड़ी है..
अब ये स्नातक इन्ही अंग्रेजी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पास जातें है, और जीवन भर की प्रतिभा ५ हजार रूपए प्रति महीने पर गिरवी रख गुलामों सा कार्य करते है...फिर भी अंग्रेजी की ही गाथा सुनाते है..
अब जापान की बात करें १०वीं में पढने वाला छात्र भी प्रयोगात्मक ज्ञान रखता है...किसी मैकाले का अनुसरण नहीं करता..
अगर कोई संस्थान अच्छा है जहाँ भारतीय प्रतिभाओं का समुचित विकास करने का परिवेश है तो उसके छात्रों को ये कंपनिया किसी भी कीमत पर नासा और इंग्लैंड में बुला लेती है और हम मैकाले के गुलाम खुशिया मनाते है की हमारा फला अमेरिका में नौकरी करता है..
इस प्रकार मैकाले की एक सोच ने हमारी आने वाली शिक्षा व्यवस्था को इस तरह पंगु बना दिया की न चाहते हुए भी हम उसकी गुलामी में फसते जा रहें है..
समाज व्यवस्था में मैकाले प्रभाव : अब समाज व्योस्था की बात करें तो शिक्षा से समाज का निर्माण होता है.. शिक्षा अंग्रेजी में हुए तो समाज खुद ही गुलामी करेगा..वर्तमान परिवेश में MY HINDI IS A LITTLE BIT WEAK बोलना स्टेटस सिम्बल बन रहा है जैसा मैकाले चाहता था की हम अपनी संस्कृति को हीन समझे ...
मैं अगर कहीं यात्रा में हिंदी बोल दू,मेरे साथ का सहयात्री सोचता है की ये पिछड़ा है..लोग सोचते है त्रुटी हिंदी में हो जाए चलेगा मगर अंग्रेजी में नहीं होनी चाहिए..और अब हिंगलिश भी आ गयी है बाज़ार में..क्या ऐसा नहीं लगता की इस व्योस्था का हिंदुस्थानी धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का होता जा रहा है....अंग्रेजी जीवन में पूर्ण रूप से नहीं सिख पाया क्यूकी बिदेशी भाषा है...और हिंदी वो सीखना नहीं चाहता क्यूकी बेइज्जती होती है...
हमें अपने बच्चे की पढाई अंग्रेजी विद्यालय में करानी है क्यूकी दौड़ में पीछे रह जाएगा..माता पिता भी क्या करें बच्चे को क्रांति के लिए भेजेंगे क्या??? क्यूकी आज अंग्रेजी न जानने वाला बेरोजगार है..स्वरोजगार के संसाधन ये बहुराष्ट्रीय कंपनिया ख़तम कर देंगी फिर गुलामी तो करनी ही होगी..तो क्या हम स्वीकार कर लें ये सब?? या हिंदी पढ़कर समाज में उपेक्षा के पात्र बने????
शायद इसका एक ही उत्तर है हमे वर्तमान परिवेश में हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित उच्च आदर्शों को स्थापित करना होगा..हमें विवेकानंद का "स्व" और क्रांतिकारियों का देश दोनों को जोड़ कर स्वदेशी की कल्पना को मूर्त रूप देने का प्रयास करना होगा..चाहे भाषा हो या खान पान या रहन सहन पोशाक...
अगर मैकाले की व्योस्था को तोड़ने के लिए मैकाले की व्योस्था में जाना पड़े तो जाएँ ....जैसे मैं अंग्रेजी गूगल का इस्तेमाल करके हिंदी लिख रहा हूँ..
क्यूकी कीचड़ साफ करने के लिए हाथ गंदे करने होंगे..हर कोई छद्म सेकुलर बनकर सफ़ेद पोशाक पहन कर मैकाले के सुर में गायेगा तो आने वाली पीढियां हिन्दुस्थान को ही मैकाले का भारत बना देंगी.. उन्हें किसी ईस्ट इंडिया की जरुरत ही नहीं पड़ेगी गुलाम बनने के लिए..और शायद हमारे आदर्शो राम और कृष्ण को एक कार्टून मनोरंजन का पात्र....
हिंदी बचाओ हिन्दुस्थान बनाओ
जय हिंद...
copied, source: http://ashutoshnathtiwari.blogspot.in/2011/04/blog-post_24.html?showComment=1449600778116#c5111192623479523098
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